घिसी चप्पल की कील (कविता) / भारतरत्न भार्गव
ईश्वर के सम्भावित जन्म और आशँकित मृत्यु तक का
लेखा-जोखा जिस छोटे से बटुए में बन्द है
डर लगता उसे खोलते।
समस्त जीवाणुआें के अनन्त अनुभव
परीक्षित नियम सिद्धान्त दर्शन
मन्त्र यन्त्र षड़यन्त्र
जटिल - कुटिल युद्ध - चक्र
तीनों लोकों पर विजय की पुराण कथाएँ
पृथ्वी का धीरे - धीरे अग्निपिण्ड में बदलना
सब कुछ जानने के लिए
बन्द बटुए को खोलना ज़रूरी
किन्तु लगता है डर !
फिर भी खोलना तो होगा ही
चाहे इसमें षड़-यन्त्र हों या बाइबिल
आर डी एक्स हो या कुरान
विनाश हो या गीता
इसे खोले बिना
समझना असम्भव उस भाग-दौड़ का महत्त्व
पड़ावों का रहस्य
लगातार आत्म-रोदन, शोधन, प्रतिरोधन
या बहु-व्यापी शोकाकुल संगीत !
कौन था वह आदिपुरुष
जिसने चलने की ठानी
इच्छा जागी भागने - दौड़ने की।
तभी समझा पाँवों का महत्त्व
अपनी जगह खोजने और बनाने में
बीत गए हज़ारों - हज़ार वर्ष !
छोटी - सी दुनिया को
बड़ा करते जाने के लिए
आदमी चलने लगा
अक्षांश से देशान्तर तक
विचार से सँकल्प तक
अनुभव से सिद्धान्त तक
सृजन से विसर्जन तक।
इस ‘चलने’ को यदि चाहें तो
कह सकते हैं यात्रा भी,
यात्रा एक कुलीन घराने का शब्द है
शालीनता के कोष का।
दीगर है बात यह
पाँवों का पाँव होना सार्थक होता है
चलने से, यात्रा से नहीं।
यात्रा शोभित होती
घोड़े की पीठ, हाथी का हौदा,
विकास / विलास का विमान
या फिर धर्म - ध्वजा पर आसीन !
उधर, चलते हुए बनता जो रिश्ता पाँव का
ज़मीन के खुरदुरेपन से
वह यात्रा से नहीं।
इसलिए पाँव चलने लगे
भूगोल और इतिहास को छोटा करते हुए
पाँव बड़े होने लगे।
गरिमामण्डित सज्जा के लिए
पाँवों ने माँगा कवच - कलेवर
सुविधा और सुरक्षा भी
कारण रहे होंगे,
रहे ही होंगे निर्विवाद यह।
वह चप्पल थी या खड़ाऊँ
जिसे राम ने भरत को दिया था उधार
या वामन के तलुओं का लेप
तीन पग में समूची सृष्टि जिसने
नाप डाली।
शक्तिवर्धक थी चप्पल पाँवों के लिए
वर्धन के बाद सत्ता और वर्चस्व
सबकुछ पाँवों की बदौलत था
एतदर्थ चप्पल निहायत ज़रूरी हो गई
पाँवों के लिए.
चप्पल के बिना चलना असम्भव
पाँव और ज़मीन के रिश्ते में चप्पल है साधन
वही देती है निर्देश चलना है कहाँ तक, कब तक।
पाँव और चप्पल व्यायोग
कितना विलक्षण है, विचक्षण भी.
दोनों ही नायक हैं, सूत्रधार भी दोनों
एक दूसरे को विदूषक सिद्ध करते।
घिसना तो चप्पल को होगा
पाँव ठेलते एक दिशा में।
डोली हैं पाँव,
चप्पल कहार।
पाँव सुरक्षित थे चप्पल से
चप्पल घिसने लगी, टूटने भी
पाँवों की ख़ातिर।
चाल उसे चलनी थी
उसने यह चाल चली।.
घिसना स्वीकार किया।
शान्ति और क्रान्ति में
पाँवों का साथ दिया।
टूटने की बजाय
चिपट गई पाँव से खाल की तरह।
घिसी चप्पल ने पाँवों की मनुहार की
मिल जाए कील अगर
जीवन खण्डित होने से बच जाए चप्पल का।
शिरस्त्राण मिला कीलों की दुनिया में
कील ने दिया चप्पल को
वह सब कुछ जो नहीं दिया पाँवों ने
केवल लिया।
कील ठुकी चप्पल के तन पर
सलीब पर चढ़ गई।
चाल हुई दुगन तिगन
द्रुत लय में खोजे सम
तर्क में वाद में
जीवन आस्वाद में
नीति और रीति में
द्वेष और प्रीति में
चप्पल की चाल का जयघोष !
(भूखे की उम्मीद की तरह
लम्बी होती जाती बात)
समन्दर के बीच उठती उत्ताल तरंगें
किनारे आते - आते बन जाती पालतू
एक सन्तनुमा विचार के अँगूठे से
टकरा कर कील ने मुँह खोला
पूछने लगी जलसाघर से आती
मदमस्त गन्ध से - किस तरफ है उसका पेट
(खँखार कर एक समूची यातना उगलती है गन्ध)
चप्पल का मुँह बन्द हुआ
खुल गया कील का
सुरक्षा के घेरे को तोड़कर
फोड़ कर क़िले के कपाट और परकोटे
भौंचक्की कील ने देखा
पाँवों का निसर्ग
सातों समन्दर, तीनों लोक
ऋषि मुनियों का ज्ञान
अन्वेषित विज्ञान
पाँवों की स्तुति में लीन !
दीन-हीन कील के वंशजों ने पुकारा
चीख़-चीख़ कर दी दुहाई अधिकारों की, अस्मिता की
पाँवों के कानों तक पहुँची नहीं चीख़.
नई जन्मी कील ने
चिकोटी भरी तलुवे में
शातिर नीतिज्ञ ने छोटी - सी बून्द
हलक़ में उतार दी ख़ून की। उसे चुप रखने के लिए।
नई उपजी टीस तलुवों के कलेजे तक जा पहुँची
रिस - रिस कर पहुँचने लगा ख़ून कील के मुँह में।
ग़द्दार नई कील के मुँह पर मूसल दे मारी पाँवों ने
मरणासन्न कील के इशारे पर
पैदा हुई एक और कील
और कीलें और और कीलें।
बात बिगड़ती जा रही या सुधरती ?
सँघर्ष का कौन सा रूप छिपा है
इस बात के मूल में ?
उद्घाटित करने में कितना जोखिम
इसे यहीं छोड़ दिया जाए
ईश्वर की आशंकित मृत्यु तक
यदि संभावित जन्म के बाद
ईश्वर अनश्वर सिद्ध हो गया
तो कैसे होगा कील के मुँह तक पहुँचे
रक्त बिन्दुओं का विश्लेषण
दलित या शोषित के संदर्भ में ?
बात को समाप्त किया जाए या नहीं ?
नासूर गहराता जा रहा
पाँवों की चप्पलें तटस्थ
संकल्पित कीलें
खुले मुँह की प्यास बुझाने के लिए.
पाँवों केहरे हरे घाव पुकारते हरे - हरे।