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घुमड़ रहे घन-गन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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राम केदारा

घुमड़ रहे घन-गन,
दिग्मण्डल में ध्वनि-मरोर भर लगन-मगन।
मद-प्रगल्भ मोरों के केका-रव मादन,
रहे शिराओं में भर नूतन संवेदन।
विरह- चिह्न धधकाते सखि री, लहर पवन,
तड़ित लपट बन चमकी करने प्राण दहन।
डब-डब भरे ढरकते लख झर-झर लोचन,
लगा झहरने हृदय गगन का गहर गहन।

(5 जुलाई, 1974)