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घूँघट में गुड़िया / शेरजंग गर्ग
Kavita Kosh से
हल्के से घूँघट में गुड़िया
लगती जैसे एक परी हो,
जो अपनी सखियों से मिलने
सुन्दर धरती पर उतरी हो।
देख रही अचरज से, दुनिया का
यह आँगन रंग-रँगीला,
सुनती है चिड़ियों का कलरव
कोयल का संगीत सुरीला।
यहीं बह रहीं कल-कल नदियाँ
ऊँचे पर्वत यहीं खड़े हैं,
अपने हाथों से, मेहनत से
मानव ने क्या रूप गढ़े हैं!
यहीं सजे हैं, बाग़-बग़ीचे
हरियाली के कपड़े पहने,
स्वर्ग बहुत प्यारा है लेकिन
धरती के सचमुच क्या कहने!