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चंदिया स्टेशन की सुराहियाँ प्रसिद्ध हैं / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
जंगल के बीच से किम्वदन्ती की तरह वह आई प्यास उस
गाँव में और निश्चय ही बहुत विकल थी ।
और चीज़ें क्यूं पीछे रहतीं जब छोटी रानी ही ने उससे
अपनी आँखों में रहने की पेशकश कर दी, लिहाजा
उसे धरती में ही जगह मिली जहाँ की मिट्टी का उदास
पीला रंग प्रेमकथाओं की किसी साँझ की याद दिलाता है ।
पहली जो सुराही बनी वह भी प्यास धरने के लिए
ही बनी थी लेकिन कथाएँ तो ग़लती से ही आगे बढ़ती हैं ।
आगे बढ़ती ट्रेन उस पुराने गाँव की पुरानी कथा में
थोड़ी देर को जब रुकती है तो लोग दौड़कर दोनों
हाथों में सुराहियाँ लिए लौटते हैं -- कथा में नहीं बाहर
सचमुच की ट्रेन में ।
वे भी इसमें पानी ही रखेंगे और विकल रहेंगे,
ग़लती दुरुस्त नहीं हुई है इतिहास की .