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चलना और बदलना / जया झा
Kavita Kosh से
पागलपन है पर पागलपन
से ही दुनिया चलती जैसे।
इंसानों के लिए इंसानियत
सौ बार देखो गिरती कैसे।
चिल्ल-पौं ये भाग दौड़,
इक दूजे पर गिरना-पड़ना।
गर्व से कहना,”हम हैं चलाते
इस दुनिया का जीना-मरना।”
सच ही है यह झूठ नहीं पर,
शायद इनसे अलग भी कुछ है।
सुख-दुख इनसे बनते, उनसे
अलग भी सुख है, अलग भी दुख है।
दुनिया चलती नहीं है उनसे
बल्कि बदली जाती है।
जो पालक विष्णु को नहीं,
संहारक शिव को लाती है।
फिर वो निर्माता को उत्साह
भरी आवाज़ लगाती है।
और मानवता को फिर से एक
नयी राह पर लाती है।
शायद फिर से ही गिरने को,
शायद फिर से उलझ पड़ने को।
शायद फिर से चलाने को
दुनिया और लड़ने मरने को।