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चलने की बेला है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


पोंछ लो आँसू
चलने की बेला है
लम्बा सफ़र
ये राही अकेला है ।
काफ़िला साथ
कब किसके चला,
बटमारों ने
हमें सदा ही छला ।
उत्सव बीता
उठ रहा मेला है ।
अँधेरे घिरे
कोई न साथ आया ,
एक तुम थे
साथ मेरा निभाया ।
मेरे दर्द को
तुमने भी झेला है ।
सिन्धु का तट
देखो ये आ गया है,
अलको बँधा
मन रुला गया है
अब बिदा दो
ख़त्म हुआ खेला है।
लहरों का रेला है ।
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