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चाँदो रे... ! / अनुज लुगुन
Kavita Kosh से
ओ मिरू!
सुनो...! रुको...
और फैल जाओ
यहाँ हमारे आँगन में
इस अलाव के पास,
बुआ साखू के पत्तों पर लपेट कर
मडुवा रोटी सिझा रही है
दादू और दादी
एक ही दोना में हँड़िया साझा कर रहे हैं
उनकी नोंक-झोंक से
झर रहे हैं गीत,
ओ चाँद..., चान्दो मुनी!
हम भी साझा करेंगे
मडुवा, हँड़िया, गीत और अलाव
तुम तो जानती ही हो
यहाँ कोई डर नहीं
यहाँ कोई छल नहीं
आओ
इस शरद पूर्णिमा में
ईंद मेला के पवित्र अवसर पर
कोई गीत नया
अपनी गठरी में बाँध लो...
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