गांव की कच्ची सड़क पर
पसरता यह पक्कापन
सुना है विकास के सूरज तक
जाता है।
इसी बनती सड़क के किनारे
कूटे हुए पत्थरों की ढेरी पर लेटा
गुदड़ी में लिपटा एक ‘चांद’
खिलखिलाता है।
सामने पत्थर तोड़ने में लगी
वो बच्ची ही
इस बच्चे की मां है,
शायद वो इसकी ममता ही है
जो धरातल की कठोरता पर
मुलायमियत बन पसरी हुई है
जभी तो तपती दोपहरी में भी
बच्चे के चेहरे पर
हंसी बिखरी हुई है।
बच्चे को सीधे धूप से बचाने को
एक चिथड़ा हवा में तिरछा टंगा हुआ है,
उसके एक पैबंद से बीच-बीच में
सूरज झिलमिला जाता है,
बच्चा समझ रहा है उसे भी
कोई खिलौना और
हाथ-पांव झटकता-पटकता
उसे पकड़ में आने को
हुलसकर पुकारता है।
यह बनता रास्ता तो
कहीं-न-कहीं पहुंच ही जाएगा,
पर मुझे नहीं मालूम
पत्थरों से अटी,
जमीन पर पड़ी
इस मासूमियत की पकड़ में
कभी विकास का कोई सूरज आ पाएगा?