भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाहे कुछ भी / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
चाहे कुछ भी
हो जाए कल
बहने देना
शीतल, निर्मल
शब्दों का
जिह्वा पर
जल
यों तो आया
जो भी-
ले गय, सका जो
हाथों में भर,
भर
अब इस ढलती आयु में
डर-सा लगता है
दे न पाऊँ शायद
इतना और ऐसे,
मैं कल!
फिर भी
भीतर-भीतर
बहती तो होगी
सलिला यह,
अक्षर
अक्षर
शब्दों में ढल,
शब्दों में
ढल!