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चाह / टूटती शृंखलाएँ / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मेरी भावनाओं की अगर तसवीर बन जाये
तो खुशहाल; उजड़े विश्व की तक़दीर बन जाये !
फूलों से मुहब्बत की, बहुत चाहा खिले उपवन
पर, पतझर-विजन की धूल में आया कहाँ जीवन ?
मंगल कल्पनाओं में ग्रहण धुँधला समाया जो,
नूतन धारणाओं पर पुराना ज़ंग छाया जो,
कर अवरुद्ध मेरी ज़िन्दगी की राह, बन पत्थर
काले रंग जैसा दूर सूने व्योम में भर-भर,
मुझको रोक, जाने क्या नयन में घोल देता है,
‘हो सरहद्द में मेरी’ — कभी यह बोल लेता है !
अभिनव रोशनी का सनसनाता तीर आ जाये
तो युग-वेदना में हर्ष सुख का नीर आ जाये !
मेरी भावनाओं की अगर तसवीर बन जाये
तो खुशहाल; उजड़े विश्व की तक़दीर बन जाये !