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चित्-बुद्धि-संवाद / सूरदास

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चकई री, चलि चरन-सरोवर, जहाँ न प्रेम वियोग ।

जहँ भ्रम-निसा होति नहिं कबहूँ, सोइ सायर सुख जोग ।

जहाँ सनक-सिव हंस, मीन मुनि, नख रवि-प्रभा प्रकास ।

प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि-डर, गुंजत निगम सुवास ।

जिहिं सर सभग-मुक्ति-मुक्ताफल, सुकृत-अमृत-रस पीजै ।

सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम,इहाँ कहाँ रहि कीजे ॥

लक्षमी सहित होति नित क्रीड़ा, सोभित सूरजदास ।

अब न सुहात विषय-रस-छीलर,वा समुद्र की आस ॥1॥


सुवा, चलि ता बन कौ रस पीजै ।

जा बन राम-नाम अम्रति-रस, स्रवन पात्र भरि लीजै ।

को तेरौ पुत्र, पिता तू काकौ, धरनी, घर को तेरौ ?

काग सृगाल-स्वान कौ भोजन, तू कहै मेरौ मेरौ !

बन बारानिसि मुक्ति-क्षेत्र है, चलि तोकौ, दिखराऊँ ।

सूरदास साधुनि की संगति, बड़े भाग्य जो पाऊँ ॥2॥