चेतना का तल बदलते ही,
अर्थ शब्दों के बदलते हैं।
गर्जना कर मेघ देते जल,
हिमशिखर चुपचाप गलते हैं।
शेष हैं इनमें अभी शैशव,
इन दृगों में स्वप्न पलते हैं।
इस अहद की ख़ासियत है ये,
होम करते हाथ जलते हैं।
हम सुसंस्कृत हो गये जबसे,
रोज़ इक चेहरा बदलते हैं।