चोथतीँ चकोरैँ चँहु औरैँ जानि चँदमुखी ,
रही बचि डरन दसन दुति दँपा के ।
लीलि जाते बर ही बिलोकि बेनी वनिता की ,
गुही जो न होती ये कुसुम सर कँपा के ।
रामजी सुकवि ढिग भौँहैँ न कमान होतीँ ,
करि कैसे छाँड़ते अधर बिंब झँपा के ।
दाख कैसे झोर झलकत जोति जोबन के ,
भौँर चाहि जाते जो न होत रँग चँपा के ।
रामजी का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।