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छंद 100 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिला सवैया
(विरह-निवेदन-वर्णन)

प्रथमैं बिकसे बन बैरी बसंत के, बातन तैं मुरझाई हुती।
‘द्विजदेव’ जू ताहू पैं देह सबै, बिरहानल-ज्वाल जराई हुती॥
यह साँवरे रावरे-नेहन सौं, अँग प्यारी न जो सरसाई हुती।
तो पैं दीप-सिखा-सी नई दुलही, अब लौं कब की ना बुझाई हुती॥

भावार्थ: दूती, ‘नायक’ से ‘नायिका’ का ‘विरह-निवेदन’ करती है कि पहले तो वह दुखदायी वसंत के विकसित वन की वायु से बुझ गई, दूसरे आपकी वियोगाग्नि से झुलस गई, वह नई दीपशिखा सी दुलही कब की बुझ गई होती यदि आपके स्नेह (प्रीति और तैल) से उसके अंग सिंचित न हुए होते।