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छंद 121 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(मानिनी नायिका-वर्णन)

लीनैं लेत ग्यान कोऊ छीनैं लेत आनि-बानि, लूटैं लेत कोऊ हठि लाज के समाज कौं।
‘द्विजदेव’ की सौं या अँध्यारी की अँधाधुँधि मैं, लेत कोऊ काह्न-सुख-संपति के साज कौं॥
ए री मेरी तोहिँ जऊ मान-मानि तोष तऊ, समयौ-बिचार कीजै ऐसे-ऐसे काज कौ।
तोहिँ इत मान के अनादरन घेर्यौ, उत बादरन घेर्यौ जाइ-जाइ ब्रजराज कौं॥

भावार्थ: मैंने माना कि नायक दोषयुक्त ही है तथापि ऐसे कार्य करने के लिए देशकाल का विचार करना समुचित है। भला ऐसे समय भी कोई मान सकता है, जब किसी का ज्ञान लूटा जाता, किसी की आनि-बानि लूटी जाती तथा किसी की लज्जा ही साज-समाज के संग छीनी जाती, कहीं पर अंधकार की अंधाधुंध में कृष्ण-समागम-सुख की संपत्ति लूटी जाती (धन प्रायः अँधेरे ही में लूटा जाता है)हो। इधर तुम्हें तो अपने मान के अनादरों ने घेरा, उधर व्रजराज को बादलों ने घेरा है अर्थात् क्यों ऐसे समय में चूकती हो, भगवान् से मिलो, नहीं तो और सौंतें सुख लूटेंगी।