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छंद 98 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिला सवैया
(विव्वोक हाव-वर्णन)

जहँ लालन की महि लाली परी, हरी बूँदन पन्नन हीं की बटी।
चपला-सी गुलाल-घटा मैं दिपैं, जहँ दासी अनेक जराइ-जटी।
‘द्विजदेव’ घनागम भोरे तहाँ, भरि फाग मैं गायन कुंज-तटी।
सखि! राधिका-संग चले बनि भींजन, एक पटी-लिऐं ए कपटी॥

भावार्थ: इस सवैया में फाग से पावस का रूपक बाँधा गया है। अतः लालमणियों के इतस्ततः गिरने से पृथ्वी पर ‘वीरबहूटी’ मालूम होती हैं। आभूषणों में पन्ने के आवेजा लटकते हुए घटा से मालूम होते हैं। योंही गुलाल घटा सा छाया हुआ है, जिसमें श्रीमती की अनेक दासियाँ रत्नजड़ित शृंगार-भूषणादि पहने हुए दामिनी-सी दमकती हैं, ऐसे पावस में गौवों को चरते छोड़ वैसे ही राधाजी के संग भगवान् एक दुपट्टा-मात्र लेकर रंग से भींजने को चले हैं। स्वभावतः महानुभाव पावस में भींजने के हेतु जाते हैं और हरियाली से भी लटकते (टपकते) हुए जल-बिंदु की शोभा को धारण करते हैं।