छठोॅ सर्ग / कैकसी / कनक लाल चौधरी 'कणीक'
छठोॅ सर्ग
ई रंङ चलती देखि कुबेर के कैकसी ईर्ष्या जागै
माल्यवान सुमाली दशानन केॅ वे वखाने लागै
जे उपहार कुवेरें देलकै आपने टा सभ छेलै
पर आबेॅ ऊ धोॅन खजाना के मालिक होय गेलै
फेनु दशानन लखी कैकसी बोलली सुन दशकन्धर
वरदानोॅ के पहिलोॅ परीक्षा दहीं जाय लंका पर
सुर ने जे निज शक्ति बधारी राक्षस राज मिटैलकै
फेनु लंक में वें दुष्टें यक्षोॅ केॅ लानि बसैलकै
जों दम छौं कुछ वरदानोॅ में तेॅ कुबेर सें छीनें
लंका जीति यक्ष हड़कावें राक्षस राज केॅ बीनें
माय ललकार सुनी दशकन्धर क्रोध मंे लथपथ होलै
सभे भाय आरो नाना संगें तुरते लंका गेलै
जैथैं लंका राजभवन में गदा घुमावें लागलै
हौ उद्दण्डता देखि कुबेरोॅ के पौरुष फिन जागलै
गदा उठैबोॅ देखी सुत केॅ वरवर्णिनी बढ़ि अैली
बोलली सुत है युद्ध करोॅ नै सुत के सम्मुख भेली
युद्ध करै के कोय नैं मतलब ई छेखौं तोरोॅ भाय
जैसनोॅ हम्में माय छी तोरोॅ तैसनोॅ कैकसी माय
पिता के तोरा छौं सन्देशा लंका केॅ त्यागै के
दशाननोॅ केॅ लंका दैकेॅ यात्रा में लागै केॅ
तोरा तेॅ बस अल्पकाल धरि लंका रहना छेल्हौं
दीर्घकाल धरि तारोॅ ठिकानोॅ अल्कापुरी मंे भेल्हौं
तखनी छेले शिवजी जिम्मां अलकापुरी बनाना
हौ बनि केॅ तैय्यार होलै आबेॅ बाँही तोरोॅ जाना
दिग्पालोॅ कुबेर केॅ पद तोरोॅ यही सर्त्त पर छेल्हौं
अल्कापुरी जब जाय मुहूरत इखनीं तारोॅ होल्हौं
पिता सनेशा पाय धनेश्वर तुरते सपरें लागै
मातु-पिता के कहै मोताविक लंका मोह केॅ त्यागै
फिन पुष्पक विमान में पत्नी ऋद्धी केॅ बैठाबै
नलकूवर मणिग्रीव दोनों सुत केॅ साथें लगवाबै
विमाता इडविडा के संगे स्वमाता केॅ बोलाबै
आपन्है साथे दोन्हूं केॅ लै पुष्पक बैठि उड़ाबै
पुष्पक जैन्हैं उत्तरें उड़लै, लंका केॅ हथियैलकै
दशाननें फिन विजय के डंका लंका में बजबैलकै
तुरत सुमाली केॅ भेजी सौंसे परिवार बोलाबै
सभ बहिनां फिन त्यागि विश्रवा लंका तरफें धाबै
सुर के डरें नुकैलोॅ निशिचर जत्तेॅ धरा पेॅ छेलै
कल्लेॅ-कल्लेॅ सभ्भे लंका बास करै लेॅ अैलै
असुरा जे पाताल भागि केॅ आपनोॅ जान बचाबै
फिन राक्षस के राज जानि सभ लंका धूरी आबै
राज कुबेर चलाबै लेली जत्ते यक्ष भी छेलै
हौ सभ राजा जाय के बादे अलकापुरी पहुँचलै
शेष यक्ष कुछ लंके रहलै कुछू परैलेॅ कन्होॅ
कुछु अलकापुरी आय केॅ बसलै बांकी जन्हौं-तन्हौं
असुरा जैन्हैं-जैन्हैं घुरलै यक्ष-रिक्त घर पाबै
गिनती में बेशी होलां पर अलगे घोॅर बसाबै
लोकपाल के आज्ञां सें जत्ते गन्धर्व बसैलै
नाग आरो किन्नर के साथें वोहो वहीं रहि गेलै
राक्षस राज के कायम होथै लंका बसलोॅ यक्षें
देव, नाग, गन्धर्व सें नाता तोड़ी राक्षस पक्षें
सौसें ठो परिवार जबेॅ सुमाली लै केॅ अैलै
राजभवन सभ जैन्हैं पहुँचलै देखथैं गद्गद् भेलै
कैकसी फिन दादी केॅ संग सब कोनां कोनां झाँखै
कन्नेॅ-कन्नेॅ के-के बैठै कहाँ खजाना राखै
कैकसी केॅ जग्घोॅ देखाय केॅ बोलेॅ लागलोॅ सुकेशी
तखनी तोहें गोदी छेलेॅ होलां जखनी विदेशी
माल्यवान के कहलोॅ किस्सा, सुकेशीं दोहरैलकी
कुछ देरी पटरानी गद्दी बैठी वें सुख लेलकी
राजकोष केॅ देखी विश्मय दशाननोॅ के भेलै
सब रत्नोॅ मुद्रा सें भरलोॅ सौसे खजाना छेलै
दै कुबेर केॅ धन्यवाद ऊ देखी धोॅन अपार
अगले दिन ही लागे लागलै दशकन्धर दरबार
सबसें पहिनें माल्यवान केॅ आपनोॅ सचिव बनावै
फेनुं सुमाली केॅ सेनापति पद दै मान बढ़ावै
कुंभकरण अपनें ही इच्छा कोइयो पद नै लेलकै
ब्रह्मा के वरदान मोताविक सूतै खावै पैलकै
ढेरी सभ सतभाय देखि मनमा शंका सें भरलै
एक कुबेरोॅ केॅ देखी आरो सें मनमां जरलै
की जानौं है कखनिं उलटतो कखनीं करतोॅ घात
ई सोची कैकसी लग पहुँची पूछै मन के बात
कैकसीं कहै विभीषण ज्ञानी ओकरा सें की शंका
ओकरा मंत्री पद पर राखीं राज करोॅ तों लंका
खरदूषण त्रिसिरा केॅ बनावोॅ उत्तर जनपद स्वामी
उत्तर सें जों अैतै आफत ओकरा लैथौं थामी
माय के सल्हा सिर पेॅ धरि दशकन्धर आगू बढ़लै
सभ के जिम्मा काम बाँटि हौ सोच अगामी पड़लै
राज काज जबेॅ ठीक ढंग सें लंका में चलेॅ लागलै
तबेॅ कैकसी के मन में अगला पड़ाव फिन जगलै
माल्यवान से करी मंत्रणा दशाननोॅ से बोलै
सुर सें बदला लैके कही वें मनगुमार केॅ खोलै
सब के सल्हां दशकन्धर दिग्भ्रमण के बात बिचारै
कैन्हों-कैन्हों बीर धरा पर ओकरा जानेॅ पारै