छब्बीस/ प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
कहाँ जा रहे हो धरती पर आग बिछी है
चौतरफा दिशा है लाल-लाल
सब ओर त्राहि-त्राहि, बस त्राहि मची है
पग के नीचे तपती धरती, ऊपर तपता है आसमान
कह रहे रात होगी ठंढी, कह रहे शांत होगा बिहना
प्राची क्षितिज पर देखो बिहान लहलहा रहा
मुट्ठी में बाँधे आग छींटता इधर आ रहा
कहाँ जा रह हो भागे? देखो! पश्चिम संध्या रानी के खुले बाल
जल गई सब्ज धानी चुनार, घिर रही लपट है लाल-लाल
ऊपर देखो नीचे देखो
रुक कर देखो झुक कर देखो
कौन नहीं पी रहा लपट में लाल लहू
किसके मुख से नहीं निकलना मुझे चाहिए लहू-लहू
भंगी को मत, कहो त्याग के पंडों को
देखो कैसे पीते छिप का लाल लहू
आग बनो तुम यहीं देख लोगे
कितने पिरामिड जल का राख़ बने
आग बनो तुम यहीं देख लोगे
कितने बेराटक जल कर लाख बने
देखो! कितना मनुहार लपट
आओ ज्वाला के सागर
मैं चुल्लू भर-भर ज्वाला पी लो
देखो कितनी है सर्द आग
बदलो तन को काठों से, बनो इंगोरा
तुम चमक-चमक जग में जी लो