जब मोहन कर गही मथानी / सूरदास
राग धनाश्री
जब मोहन कर गही मथानी ।
परसत कर दधि-माट, नेति, चित उदधि, सैल, बासुकि भय मानी ॥
कबहुँक तीनि पैग भुव मापत, कबहुँक देहरि उलँघि न जानी !
कबहुँक सुर-मुनि ध्यान न पावत, कबहुँ खिलावति नंद की रानी !
कबहुँक अमर-खीर नहिं भावत, कबहुँक दधि-माखन रुचि मानी ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, परति न महिमा सेष बखानी ॥
भावार्थ :-- मोहन ने जब हाथ से मथानी पकड़ी, तब उनके दही के मटके और नेती(दही मथने की रस्सी) में हाथ लगाते ही क्षीरसागर, मन्दराचल तथा वासुकि नाग अपने मन में डरने लगे (कहीं फिर समुद्र-मन्थन न हो)। कभी तो ये (विराट्रूप से)तीन पैंड में पूरी पृथ्वी माप लेते हैं और कभी देहली पार करना भी इन्हें नहीं आता, कभी तो देवता और मुनिगण इन्हें ध्यान में भी नहीं पाते और कभी श्रीनन्दरानी यशोदा जी (गोद में) खेलाती हैं, कभी देवताओं द्वारा अर्पित (यज्ञीय) खीर भी इन्हे रुचिकर नहीं होती और कभी दही और मक्खन को बहुत रुचिकर मानते हैं । सूरदास के स्वामी की यह लीला है,उनकी महिमा का वर्णन शेष जी भी नहीं कर पाते हैं ।