भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब वर्षा शुरू होती है / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
जब वर्षा शुरू होती है
कबूतर उड़ना बन्द कर देते हैं
गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है
और फिर लौट आती है
मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा
और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की
जो पत्तियों से गिरती है
सिप् सिप् सिप् सिप्
जब वर्षा शुरू होती है
एक बहुत पुरानी सी खनिज गन्ध
सार्वजनिक भवनों से निकलती है
और सारे शहर में छा जाती है
जब वर्षा शुरू होती है
तब कहीं कुछ नहीं होता
सिवा वर्षा के
आदमी और पेड़
जहाँ पर खड़े थे वहीं खड़े रहते हैं
सिर्फ पृथ्वी घूम जाती है उस आशय की ओर
जिधर पानी के गिरने की क्रिया का रुख होता है ।