जब सारी दुनिया दहशत में थी
तब हम प्रेम में थे !
डर हम भी रहे थे
पर मौत से नहीं,
घरवालों से
सब टीवी पर नजर गड़ाए थे,
हम व्हाट्सएप पर
हम दोनों बिल्कुल अलग रंग के थे
जैसे वो हरा-भरा था
मैं, बस, सफ़ेद थी,
केसरिया रंग हम दोनों में नहीं था,
पर, हाँ, लाल रंग दोनों में एक जैसा था
मेरा सारा स्त्रीवाद
उसके प्रेम भरे एक सम्बोधन पर
निसार हो जाता
कभी वो एकदम सपाट हो जाता है
और मैं उसके चेहरे पर कोई भाव न देखकर
परेशान हो जाती हूँ
घबराकर उसके अन्दर
ख़ुद को ढूँढ़ने लगती हूँ
ये असहनीय पीड़ा बढ़ती जाती है
विमर्श प्रेम से हटकर पॉलिटिकल हो जाता है
उसका रूखापन बढ़ जाता है
विमर्श बहस में बदल जाता
इस बीच प्रेम हमसे छिटककर एक कोने में पड़ा
सिसक रहा होता है
कभी सोचती हूँ कि मैं उससे
हाथ छुड़ाकर उठूँ
और प्रेम को झाड़-पोछकर गोंद में ले लूँ
और निकल जाऊँ उसे बिन बताए कहीं !