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ज़मीन खोदने का वक़्त / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
माचिस बदल-बदलकर भी
नहीं निकलती जब आग
वे लेते हैं धौले पत्थरों का सहारा और
करते हैं प्रतीक्षा गर्म चिनगारी की।
लगातार बर्फ के नीचे दबे रहने से
हो गए हैं सुन्न
चकमक के पत्थर।
सही समय पर
सही आग के लिए
ज़रूरी है ज़मीन खोदना
बहुत गहरे तक
तुम लगातार तोड़ रहे हो
ज़मीन पर उभरी हुई
ठण्डी चट्टानें ।
ऐसे समय में
जब इस शहर के अधिकतर चेहरे
चल रहे हैं जुलूस के पीछे
उनको कविता की हिरासत में लेना
ज़रूरी है।
लेकिन याद रहे-
यह वक़्त कवि-सम्मेलन का नहीं,
खुद को जुलूस में शामिल करने का है
यह वक़्त माचिस की तीलियों से
दाँत कुरेदने का नहीं,
पूरी ताकत के साथ
ज़मीन खोदने का है।