ज़ाकिर हुसैन
जगाते हैं नाद की अद्भुत कला
तबले पर
ऊँगलियों से।
ज़ाकिर जानते हैं
अमूर्त भाव को
ध्वनि में मूर्त करना।
तबले पर
नृत्य करती हैं ऊँगलियाँ
सिद्धहस्त नृत्यांगनाओं की तरह।
हथेली-कलश
शीश पर लिए
ज़ाकिर की ऊँगलियाँ
तबला-मंच की नर्तकी हैं
प्रस्तुत करती हैं मुद्राएँ
भाव मुद्राएँ।
ध्वनियों में
एक अद्भुत निनाद।
राग में बजती है लय
लय में लरजती है धुन
धुन में धुनी रमाते हैं
और जगाते हैं संगीत सिद्ध राग।
ज़ाकिर
अपने तबला वादन में
गढ़ते हैं तरंगों की नई कला
कला का नूतन आधुनिकतावाद
नवीन मिठास
आत्म निनाद।
दो गोलार्द्धों की पृथ्वी ने
नाप लिया है
ज़ाकिर की हथेली तले
तीनों लोकों का
रहस्य-सुख
मुट्ठी में है उनकी
आत्मीयता का सजल अनुराग।
तबले के दोनों फलक
बनते हैं निनाद-कुंड
पिघलता है ध्वनि का हिमालय
ज़ाकिर की साधना के ताप से।
तांडवी शंकर के आशीष से
रचते हैं वादन-कला
थाप और मुद्राओं को
जीती और जगाती हुई
गूँजती है निनाद-कला
अवतरित होता है जीवनदायी संगीत।
ज़ाकिर
होते हैं एकात्म
अपनी ही अंतर्धुन की लय में
उतारते हैं हथेलियों से
जन-मन में
जैसे पूर्णिमा की रात में
झरती है चाँदनी
बिना झरे ही
वादन की आभा से
आलोकित होता हुआ।
वादन की टनक
ध्वनियों की दमक
हर्ष का विजयघोष
चमकता है साधक की देह में
साधना का मूर्त प्रतिफल बनकर।
तबले के घट में
उतरता रहता है
नाद-अमृत ऊँगलियों से निचुड़कर
श्रोता के स्मृति घर में
अविस्मरणीय झंकार बनकर।
तबले के कैनवास पर
ध्वनियों के विलक्षण चित्रकार सरीखे
उपस्थित श्रोता के ह्रदय-पटल को भी
बनाते हैं कैनवास
और रचते हैं ध्वनिचित्र और चित्रों का आनंद।
थाप का अमृत-घोष
ह्रदय में आनंद की स्थायी स्मृति
ज़ाकिर अपनी साधना से
आविष्कृत करते हैं अनहद नाद
अपने साधना-कुंड में
और उलीच निकालते हैं
अपनी हथेलियों से
आनंद का प्रसाद।
तबला-वादन
अनोखी कला के रूप में
उतरती और अवतरित होती है
पोर-पोर में गूँजता हुआ छलकता है
वादन का हर्ष
कपोलों में वाद्य की लाली
अधरों में सिद्धि का अनुराग
कि सुर भी उतरते हैं सुरा की तरह।
राग फड़कती हुई उतरती है भुजाओं में
भुजपाश में समेट
अपने वक्ष में सकेल
पुनर्वापसी करते हैं दर्शक श्रोता तक
राग का होता है पुनर्जन्म
रागों के ख़ुदा 'ज़ाकिर'
तबले की पृथ्वी पर
एक विलक्षण अवतार।
घुड़दौड़ की टापों को
अपनी हथेली की थापों से
ध्वनित करते और रचते हैं
'अश्व राग'
ओ पी नय्यर की संगीत-झलक झंकृत
ज़ाकिर की हथेली में होती है
अश्वराग की लगाम
और वह होते हैं घुड़सवार
घुड़सवारी के मद में उन्मत्त
दिखाई देते हैं मंच पर आसीन
कि याद आती है
अपने नए अर्थ में
धूमिल की कविता - लोहे का स्वाद
लुहार से नहीं
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम लगी है।
रेल की ध्वनि-गति को
तबले पर चला कर
रचते हैं
रेल-राग
रेलगाड़ी … रेलगाड़ियों को बाईपास
करती हुई गुजरती है कई पुलों से
लंबी रेल-यात्रा का संस्मरण
रचते हैं ज़ाकिर
कि वातानुकूलित और हवाई-यात्री हुए
नवधनिक और कला-अनुरागी
कहीं भूल न जाएँ रेल का रेला-राग
और मोटरों साइकिलों का शोर
सड़क की भीड़
भीड़ का संघर्षमय कोलाहल।
तबला-वादन की
ऐतिहासिक परंपरा में
जोड़ते हैं वाहनों की ध्वनियों का राग-विराग
गोंदई महाराज, किशन महाराज की काशी परंपरा में
हथेली रचाती है राग की आधुनिक न्यास-शिला।
थाप की आत्मीयता
वाद्य का अद्भुत सुरीलापन
कि उनकी हथेली तले
तबले में होता है
ज़ाकिर का अस्तित्व
जो रचता है तबले का व्यक्तित्व।
निष्प्राण तबले की देह में
अपने ओजस्वी कला सिद्ध प्राण
प्राणों की अलौकिक शक्ति
कि अवतरित होता है विलक्षण निनाद।
देह से देह में
प्राण से प्राण में
कि भारत की राजधानी
दिल्ली के हेयात रीजेंसी सभागार के
एलीट क्लास की आत्ममुग्ध अहंकारी
सजी-सँवरी देह भी
होती है विदेह।