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ज़िंदगी की बात / हरीश निगम
Kavita Kosh से
ऊँघते दिन छटपटाती रात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात
छाँव के छींटे नहीं बस धूप है
हर कदम पर एक अंधा कूप है
छत नहीं
सिर पर खड़ी बरसात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात
क्या कहें इस पार ना उस पार के
हो गए हम नाम केवल धार के
हैं भँवर
कितने लगाए घात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात
नाव काग़ज़ की बनाता है शहर
बाजियों से हम नहीं पाए उबर
जेब में
लेकर चले हैं मात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात