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ज़िन्दगी का सफ़र / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
साँसों की डोर पर ज़िन्दगी
बदहावस नंगे पाँव
मुसलसल बस चले जा रही है
ना कोई बैलेंस रॉड
मदरियों सा
ना कोई सेफ्टी बेल्ट
इस खम्बे से उस खम्बे
तक का सफ़र
जब तय करती है ज़िन्दगी
कितनी बार डगमगाती है
साँसों की रस्सी
तब जाके करतब पूरा होता है
जीने के हर सीन का
तब जाके तमाशबीन
जेब से निकलता है सिक्का
दाद ओ तहसीन का
तब जाके मुकम्मल होता है सफ़र
आसमान से इस ज़मीन का॥