भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़ेरे-पा इक जहान रखते हैं / फ़रीद क़मर
Kavita Kosh से
ज़ेरे-पा इक जहान रखते हैं
वो जो टूटे मकान रखते हैं
एक मुद्दत हुई मगर अब भी
हम हथेली पे जान रखते हैं
मंज़िलें भी उन्हीं को मिलती हैं
हौसले जो जवान रखते हैं
दोनों मिलते हैं टूट कर लेकिन
फासला दरमियान रखते हैं
सामने यूँ न जाओ बे पर्दा
आईने भी ज़बान रखते हैं
मर चुकीं साड़ी ख्वाहिशें अब हम
रास्तों की तकान रखते हैं
उनसे मेहरो-करम, खुलूसो-वफ़ा
हम भी क्या क्या गुमान रखते हैं