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जाने कैसी किस्मत पाई / सुरजीत मान जलईया सिंह

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जाने कैसी किस्मत पाई
रोज दुलारी रोती है!

आँगन से उठ गई पालकी
अपनों ने ही मुंह मोडा!
आठ वर्ष की थी जब उसने
माँ बाबा का घर छोडा!
साठ वर्ष के रामू के संग
अपना बचपन खोती है!

दिन भर करती चौका बर्तन
घर घर में झाडू पोंछा!
भरी जवानी में न जाने
कितनों ने उसको नोंचा!
उन्हीं दर्द व पीडाओं को
आज तलक वह ढोती है!

बीस वर्ष में रामू काका
संग छोडकर चला गया!
भैमाता के आँगन में बस
रोज उसी को छला गया!
घुटनों बीच छुपाकर सर को
वह दुखियारी सोती है!