जा बिटिया ! / राम सेंगर
फटे हुए
चीकट पाजामे की जेब का
सूंघ नहीं मुचड़ा रूमाल !
जा बिटिया,
इसे कहीं डाल !
भभक मारती इसमें
सड़ी-गली अपनी नैमित्तिक दिनचर्या की
पूछ नहीं पगली
कुछ इल्म हमें भी कम है
तह दर तह के हर विद्रूप का !
खूँटी पर लटकादे
बाज आ गए ओढ़े इस नकली चेहरे से
अन्तर्संगति टूटी
चौखटा लगा घुनने
शीशे में मढ़ी हुई धूप का !
जाफ़री लगा करके
सरका दे पर्दे को
घर की बेचारगी उघरती विज्ञापन में
ख़ालीपन बज उठता है चप्पे-चप्पे का
प्रश्नपरक आँखों से
सड़क जिसे घूरेगी
टिका-टिका उंगली पर गाल !
जा बिटिया,
इसे कहीं डाल !