जिंदगी को रोज़ इक त्यौहार कर
मौत भी हो सामने तो प्यार कर
देश का सम्मान जो करते नहीं
अब न तू इनसे चमन गुलज़ार कर
हो जहाँ दीवार मजहब की नहीं
चल इमारत का उसी दीदार कर
देश की ख़ातिर जो देते जान हैं
तू न उन पर संग की बौछार कर
जिंदगी ग़र दर्द का दरिया बना
हौसलों की एक फिर पतवार कर
बाजुओं में हैं लिपटते नाग तो
मार उनको आस्तीन सुधार कर
जिंदगी रहमत ख़ुदा की मान ले
ख़ुदकुशी कर तू न उस को ख़्वार कर