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जिजीविषा / कविता कानन / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
कहता तरुवर
काट दिया शीश को
शाखा रूपी भुजाओं को
किन्तु
मिटा नहीं सके
मेरे अंदर पनपती
जिजीविषा को
फूट पड़ी वह
स्वयं सत्वर
कोपलों का रूप धर कर
देख रही है
अनन्त आकाश को
वही है
उसका लक्ष्य
फिर बनूँगा मैं
सघन , विशाल वृक्ष।
आयेंगे अनेक पक्षी
गूँजेगा कलरव
बनेंगे नये नये घोंसले
जन्मेंगी पीढ़ियाँ
उड़ेंगे पंछी
अपने पंख पसार
अनन्त आकाश की ओर ...