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जिज्ञासा / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा
आदत है
गूंगे सूरज की
बैठा-बैठा आंख तरेरे
बिना ठौर की
हवा न पूछे
और सफ़र कितनी दूरी का
घिरे मौन के नीचे
आवाज़ तलाशे जा जिज्ञासा
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा
प्रश्नों का विस्तार
कहीं-कहीं पर
उत्तर के आभास दिया करता है
झुलस रही यायावर सांसें
थकें न हारें
देह छवाती जा जिज्ञासा
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा
यहीं कहीं पर
धरती उठ जाती
आकाश झुका करता है
झर-झरता
कल कलता
बह जाता है
इन्हीं क्षणों से छू जाने तक
पांव छापती जा जिज्ञासा
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा