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जिसके उर का अंध कूप / सुमित्रानंदन पंत

जिसके उर का अंध कूप
हो उठा प्रीति जल से परिप्लावित,
हँसने रोने में न गँवाता
वह अमूल्य जीवन क्षण निश्चित!
प्रिय चरणों पर उमर निछावर
चखता स्वतः स्फुरित मदिरामृत,
लाला के रँग की हाला भर
पीता बाला के सँग प्रमुदित!