जिस पल मुझको कन्ठ लगाते / प्रताप नारायण सिंह
(बच्चन जी की "प्रतीक्षा" से प्रेरित है यह रचना। प्रतीक्षा की अंतिम पंक्ति है - "अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कंठ लगाते तब क्या होता"। )
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय,
जिस पल मुझको कन्ठ लगाते
मिल साथ रक्त के, रग रग में,
स्पर्श तुम्हारा गतिमय होता
छू लेता उच्छ्वास कर्ण पट,
राग -बिद्ध उर सुध बुध खोता
विरह - वेदना संचित, पल में,
धुल जाती मृदु चितवन से
प्रेम प्रतीक्षा-रत जन्मो से ,
निरख-निरख मुख, चक्षु अघाते
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय,
जिस पल मुझको कन्ठ लगाते
जल प्रेम सुधा का नयनो में,
माणिक सा झिलमिल, भर जाता
मिल संग हृदय का स्पंदन-
रव , रोम रोम को मदमाता
बाँहों- साँसों का अवगुन्थन-
अस्तित्व न रहता अलग अलग
मन, प्राण, गात के संगम पर
शशि, तारक-दल बलिहारी जाते
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय,
जिस पल मुझको कन्ठ लगाते