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जीवनांश / बिन्दु कृष्णन

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क्या वापस चाहिए तुझे
अपनी स्वतन्त्रता?

हाँ, दे दूंगी,
बदले में लौटा दो मुझे फूलों की वह ताज़गी
जो सुहागरात को तुमने छीन ली थी
झरनों की वह शुचिता
जो तुम्हारे कारण कीचड़ में बदल गई है।

वापस दे दो
ढुलक गए स्तनों का
वह सौन्दर्य।
उभरे पेट की
बरगद-दल जैसी मुग्धता।
आधि से झड़े बालों की वह सघनता

पोंछ दो,
आँखों के बीच की कालिमा
उदर के नीचे की रेखाएँ।

तब
तोड़ के फेंक दूंगी मैं यह बन्धन,
शादी की यह फाँसी

घूँसा मार के बाहर निकाल दूंगी
तुझे उसी पल
अपने प्रणय-नीड़ से
अनन्त खुली दिशा में।

 
अनुवाद : एम० एस० विश्वम्भरन