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जीवन क्या तुम भी / विजय कुमार पंत


जीवन तुम आड़े - तिरछे से
क्यों चलते हो
क्यों उगते हो यहाँ वहां
जब भी जी आया
पलक झपकते बिना बताये
क्यों ढलते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

क्यूँ करते हो उद्दघाटन
नित नयी राह का
क्यूँ प्राणों में मोह मिलकर
जल भरते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

क्यूँ उड़ते उन्मुक्त गगन में
जब तब यूँही
बेबस से पलभर में
क्यूँ भू पर गिरते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

खुद देते हो रोज दिलासा नए होसले
क्यूँ पल भर में क्षण भंगुरता से
डरते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

शाश्वत से संयोग बनाते हो मेरे संग
और मौत के हाथ मुझे,
मुझसे हरते हो
जीवन कभी कहो तो..
क्या तुम भी मरते हो ??
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो