भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन भर जीती हैं / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
कैसा है जीवन
अभिशप्त, अहल्या सा
जिसे आज भी प्रतीक्षा है
राम के स्पर्श की
जो उसे दिलाएगा
उसके जीवन का अधिकार
अभिशाप मुक्त कर।
आओ राम
इस युग में भी आओ
आज फिर ज़रूरत है तुम्हारी
फिर अभिशप्त जीवन जी रही है नारी
कहीं कोख में उसका दम घुटता है
तो कहीं जीते जी जलती है।
जीती है जो तन से
पर मरती है मन से
शोषण के प्रश्न पर
नहीं है कोई वर्ग भेद
रीता-मीता हो
या सीता-सावित्री
सभी एक ही कटघरे में खड़ी हैं
अपना अपना न्याय माँगने
जो उन्हें कभी नहीं मिलता
फिर भी
सूनी आँखें, सूना मन लिए
वे जीवन भर जीती हैं।