जीवन हुआ सिनेमाघर में परदे का चल चित्र
सर्व प्रथम एक प्रमाणपत्र आ जाता है सम्मुख
मैं क्या हूँ कैसा हूँ वो समझा जाता है आमुख।
फिर आते हैं मुझे प्रभावित करने वाले नाम,
इनमे से कुछ नाम मात्र के होते कई प्रमुख।
मेरा जीवन क्या मेरा है, मुद्दा बड़ा विचित्र।
कभी स्नेह का भाव दृश्य तो कभी ईर्ष्या भभकी,
कभी प्रेम का शांति फुहारा कभी दुश्मनी धधकी।
अपनी इच्छा अपनी मर्ज़ी
निर्देशक के हाथ,
दृष्टि, सांस, धड़कन इन सब की मालिक दुनिया कब की।
मुस्कानी समझौते में है अनुबंधित सा इत्र।।
भाई कहीं तो बहन कहीं पर सबका अपना चाव,
अपनापन दर्शाने वाले बाँट रहे हैं घाव।
सब झूठे हैं खुद सच्चे हैं गढ़ते रहे सबूत,
संबंधों की फ़िल्मी दुनिया सबके अपने भाव।
ऐसे में चरित्र अभिनेता सा आ जाता मित्र।
जीवन हुआ सिनेमाघर में परदे का चलचित्र।।