भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जुलाई / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
Kavita Kosh से
आमों से सिंहासन छीनने लगे हैं जामुन
कैलेंडर के पलटे हुए पन्नों में
दब गई हैं कोयल
ताज़े खिले फूल हैं किताबें
सफ़ेद पंखुड़ियों की सुगंध से
निढाल पड़े विद्यालयों की चेतना लौटी है
धूप वैशाख के खंडहर की ध्वस्त खिड़की
प्रवासी पक्षियों की तरह आए हैं बादल
यह उनके प्रजनन का समय है
युवा ख़ून की तरह बहता पानी
जुलाई की नसों में
हर्ष से विस्मित रोम हैं घास
राष्ट्रीय रंग की तरह पसरा है ‘हरा’
छत पर बंधी रस्सियाँ
कर्फ़्यूग्रस्त सड़कें हैं
बूंदों के अंडों से निकलते हैं
मेंढकों के बच्चे
बारिश जुलाई का आवास है।