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जैसे कोई पुराना घर हो / आनंद खत्री
Kavita Kosh से
वो
अचानक ऐसे
मिली थी मुझसे जैसे
सालों बाद कोई
अपने पुराने घर को
देख कर कुछ देर
रुक गया हो।
कुछ
पोशीदा नज़रें
ऐसे टिकी थीं मुझपे
और ओट ले रहीं थीं
जैसे
दरवाज़ा किसी दीवार पर
जा टिका हो।
मैं भी
बेदम सा रुका रहा
जैसे
हो बोझल सा कोई
सूना कमरा
धूल की चादर में
लिपटा हुआ।
आज
हाथ बहुत ही
खाली थे
जैसे
यादों की कड़ियों में
न तारीख़
और न पता हो घर का।
वो
रुकी नहीं या
चली गयी।
आयी भी थी
ये मालूम नहीं
बस एहसास
महज़ कुछ ऐसा था।