राग नट
जौलौ सत्य स्वरूप न सूझत।
तौलौ मनु मनि कंठ बिसारैं, फिरतु सकल बन बूझत॥
अपनो ही मुख मलिन मंदमति, देखत दरपन माहीं।
ता कालिमा मेटिबै कारन, पचतु पखारतु छाहिं॥
तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत।
कहत बनाय दीप की बातैं, कैसे कैं तम नासत॥
सूरदास, जब यह मति आई, वै दिन गये अलेखे।
कह जानै दिनकर की महिमा, अंध नयन बिनु देखे॥
भावार्थ :- `सत्य स्वरूप' अपनी आत्मा का वास्तविक रूप। असत् शरीर को ही अविद्यावश
`आत्मा' मान लिया गया है। वह तो सनातन सत्य है।
`तौलों.....बूझत' मणि-माला गले में ही पहने है , पर भ्रमवश इधर-उधर खोजता फिरता
है। आत्मा तो अन्तर में ही है, पर उसे हम जगह-जगह खोजते फिरते हैं।
`अपनी...छाहिं' मुंह में तो अपना काला है, पर वह मूर्ख शीशे में कालिमा समझ रहा
है , उस शीशे को बार-बार साफ कर रहा है। असद्ज्ञान के साधन भी असत् ही होते हैं।
जब तक जीवात्मा को स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं हुआ, उसे `सत्' `असत्' का विवेक
प्राप्त नहीं हो सकता।
शब्दार्थ :- बूझत फिरतु =पूछता फिरता है। पचतु =परेशान होता है। पखारतु = धोता
है, साफ करता है। तूल =रुई। पुट = दीपक से तात्पर्य है। अलख =वृथा।