दूर क्षितिज से ज्ञानी कौआ! 
मीठे स्वर में बोल रहा है। 
उसे पता है आसमान में
कितने पंछी नित उड़ते हैं। 
कितने नए परिंदों के पर, 
नभ से प्रथम बार जुड़ते हैं। 
और ख़बर है उस कौवे को, 
किसने अमृत घोला नभ में
और अमिय से भरे गगन में-
कौन हलाहल घोल रहा है। 
दूर क्षितिज से ज्ञानी कौआ! 
मीठे स्वर में बोल रहा है। 
ज्ञानी कौआ! जिसे पता है, 
किसने किसका पर तोड़ा है। 
और ख़बर है उसे कि किसने
कुंठित हो, निज पथ छोड़ा है। 
नभ को शृंगारित करने में, 
किसका कितना सहयोग रहा-
ज्ञानी कौआ! प्रश्न-गाँठ को
कर-कमलों से खोल रहा है। 
दूर क्षितिज से ज्ञानी कौआ! 
मीठे स्वर में बोल रहा है। 
ज्ञानी कौआ! अधिवक्ता है, 
आदत बिना शुल्क लड़ने की। 
दोष किसी का रिक्त भाल पर, 
बिना कहे झटपट मढ़ने की। 
न्यायाधीश बना है उल्लू, 
दिन में जिसे न दिखता कुछ भी। 
पकड़ तराजू बड़े चाव से-
रचना मेरी तोल रहा है। 
दूर क्षितिज से काला कौआ! 
मीठे स्वर में बोल रहा है।