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ज्यों झाँकता है डाकिया / ओम पुरोहित ‘कागद’

मौन बैठा है
झूंपे की कूंपली पर
दूर-दिसावर से आया काग
देखता है
आंगन में
नहीं है अनाज की गंध
चूल्हे और चाकी पर
कर्फ्यू की सी है चुप्पी ।

पलींडे ने कर रखा है व्रत
अखूट निर्जला ग्यारस का
टूट ही जाएगा
जब झरेंगे
बीनणी के आंसू
पावणा आने की सूचना के लिए
यदि बोल भी गया ।

इसी लिए मौन है काग
और
झांकता है शून्य में
ज्यों झांकता है डाकिया
ताला लगे घर को
हाथ में लिए
पूरे पते वाली चिट्ठी ।