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झर झर झर जल झरता है / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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झर झर झर जल झरता है, आज बादरों से ।
आकुल धारा फूट पड़ी है नभ के द्वारों से ।।
आज रही झकझोर शाल-वन आँधी की चमकार ।
आँका-बाँका दौड़ रहा जल, घेर रहा विस्तार ।।
आज मेघ की जटा उड़ाकर नाच रहा है कौन ।
दौड़ रहा है मन बूँदों-बूँदों अँधड़ का सह भार ।
किसके चरणों पर जा गिरता ले अपना आभार ।।
द्वारों की साँकल टूटी है, अंतर में है शोर,
पागल मनुवा जाग उठा है, भादों में घनघोर ।
भीतर-बाहर आज उठाई,किसने यह हिल्लोर ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल