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टिंगी डिंबू के लिए / हेमन्त देवलेकर

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सारे खिलौने
एक हठ को पकड़े
जीते हैं तेरे संग
कि बचपन की ओस को
भाप न बनने देंगे।

मगर जब तू तेरे पापा के
ढीलम-ढाले जूतों में
पिद्दे से पैर डाले
डगमगाती फिरती है घर भर,
उनके दाढ़ी का बुरुश
पीपल के लाल पत्तों जैसे
अपने गालों पर घुमाती है,
कभी-कभी
आईने में देखकर
उनके जैसी मुच्छी भी चितर लेती है

क्या तूने कभी जाना
कि जल्दी से बड़ी हो जाने की तेरी जिज्ञासा का
खिलौनों की कसम पर
क्या असर हुआ होगा?

कितनी ठेस पहुँची होगी उन्हें
जो जीते हैं
तेरे संग
तेरी परछाई बन
महज़ इसलिये कि तू
कभी जान न पाए
बचपन की क्षण भंगुरता
और चिरंजीवी बना रहे
तेरा-उनका चहचहाता साथ।

मगर
एक डर
सताता तो है उनको
कि जैसे-जैसे तू बड़ी होती जाएगी
वे छूटते जाएँगे
और एक दिन अकेले रह जाएँगे

यही सोच गुमसुम होते हैं वे
इसीलिये तेरी पलकों में
छुपकर सोते हैं वे।