दोना के दिया नियन ई जिनगी
समय के नदी में बहल जा रहल।
दुःख औ दरद के लहर के लहर
छन-छन छू-छू के बदल जा रहल।
काम के पछेया जोड़ ये चललै
क्रोर्ध आधी से डगमगा रहल।
लोभ के बदरी हे घुमड़ल कैसन
मोह अन्हरिया न कुछ बूझा रहल।
इरखा के ओला रह-रह के पड़े
मान के दोना हे खुलल जा रहल।
अचरज हे कैसे न बुझे दिया
बहल जा रहल औ टिमटिमा रहल।