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ट्रेन की खिड़की से / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
ट्रेन की खिडकी से
पहाड
देख रहा हूं मैं
छोटे-छोटे कई खडे हैं सामने
जिनकी पृष्ठभूमि के ढालवें मैदान में
बच्चे फुटबॉल खेल रहे हैं
केसी-कैसी शक्लें हैं इनकी
सीधा खडा है कोई स्तूप सा
मंदिर सा तराश लिए है कोई
एक की कमर पर
उकडूं बैठी है बडी सी चट्टान
मेढकी सी टिकी है पिछले तलुओं पर
मानों उछाल लेगी उुपर को अभी ही
यह उसकी अपनी मुद्रा है
समय जब भी उछालेगा
उसे नीचे उछालेगा
नीचे फुटबॉल खेलते बच्चों के कदमों में ।
1992