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डबलरोटी वाला / प्रताप सहगल

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वह हांक लगाए या नहीं
मरियल साइकिल की खटर-पटर
बता देती है
कि वह आ गया है.
कैरियर पर
रबड़-ट्यूब से बंधा बड़ा ट्रंक
खामोश हो तो
माल है
बजे तो खाली.
हैण्डिल के साथ बंधी एक मैली पोटली
का रहस्य
कोई-कोई समझ पाता है.
दरअसल बात यह है कि
पोटली दिखती ही नहीं
दिखता है
खुलता बन्द होता ट्रंक
उसमें डबलरोटी, अंडे, मक्खन
और बन्द.
यही चन्द शब्द
उसकी हांक हैं
और मेरी छोटी बेटी
उसे डबलरोटी वाला के नाम से पहचानती है.
दरअसल उसकी यही पहचान है सारे शहर में
डबलरोटी वाला.
यूं उम्र से वह अभी जवान है
पर हरकतें और चाल
बुढ़़ापे के करीब हैं.
सफेद डबलरोटी
और उसके सफेद कपड़े !
एक दूसरे के सामने
दो विपरीत ताकतों के प्रतिनिधि लगते हैं
इनके बीच वह खुद कहां है
यह तो वह खुद भी नहीं जानता.
बाल उसके सफेद ज़रूर हुए हैं
पर ढिठाई इसमें है
कि वे उड़े नहीं
 न मुड़े हैं
सीधे तने खड़े हैं
शायद कई दिन से तेल नहीं लगाया
जबकि ग्राहकों के घर से आती
शैम्पू की खुशबू वह रोज़ सूँघता है
शायद न भी सूंघता हो
कौन जाने?
वह पोशाक से शुद्ध भारतीय लगता है
और विचार से भी.
वह अपना विचार या दर्शन
नहीं जानता
यह शब्द भी शायद उसने नहीं सुने
पर उसके चेहरे पर तेज़ी से
दौड़ने वाली मुस्कराहट
यही निश्चय कराती है
कि वह विचार से भी विशुद्ध भारतीय है.
क्योंकि मैंने कई बार उसे
बड़े सन्तोष के साथ
हैण्डिल के साथ लटकी हुई पोटली से
सूखी रोटियां खाते
नहीं चबाते हुए देखा है.
दाँत उसके पैने लगते हैं
लेकिन वह काम सिर्फ
सूखी रोटी चबाने के ही आते हैं.
खुद के लिए
वह सूखी रोटी वाला है
डबलरोटी वाला तो वह दूसरों के लिए है.