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डरती हूँ डरता है मुझसे डर भी / सुजाता
Kavita Kosh से
सामने खाई है और मैं
खड़ी हूँ पहाड़ के सिरे पर
किसी ने कहा था
-‘शापित है रास्ता
पीछे मुड़ कर न देखना
अनसुनी करना पीपल की सरसराहट
किस दिशा को हैं
देखना पाँव उसके जो रोती है अकेली इतना महीन
कि पिछली सदियों तक जाती है आवाज़’
दर्द यह माइग्रेन नही है
उठा लाई हूँ इसे अंधेरे की पोटली में बाँध
वहीं से
बच्चों के चुभलाए टुकड़े टूटे हुए वाक्य गीले बिछौने
ये सारे टोटके बांध लाई हूँ
सम्बोधन तलाशती हूँ
मुँह खोलते अँट जाती है खुरचन पात्र में
मेरे स्वामी
प्रभु मेरे!
मुट्ठी में फंसे मोर पंखों की झपाझप सर पर
नहीं,खाई में कूदना ही होगा
तोमुड़ ही लूँ एक बार
नहीं दिखते दूर- दूर भी
पिता
माँ
बहन
साथी
देखती हूँ अपने ही पाँव उलटे!