डर / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती
अगर इन आँखों की ज्योति बुझ जाए
तो फिर क्या होगा, क्या होगा तब!
दूर रास्तों पर भटक कर
कितनी नदियों, जंगलों में तलाश कर
जिसे लाए हो इस रात में, मन
मैंने उसे अब तक नहीं देखा, नहीं देखा अब तक
अब अगर इन आँखों की ज्योति बुझ जाए
तो फिर क्या होगा, क्या होगा तब!
वह ख़ुद भी जा सकती है
अगर चली जाए
तो फिर क्या होगा, क्या होगा तब!
यह जो आँखों का उजाला
जिसे मैंने दुख-दर्द की आग में जलाए रखा है
कि देख सकूँगा उसे
वह अगर फिर लौट जाए उजली आँखें लिए
तो फिर क्या होगा, क्या होगा तब!
कभी खो देता हूँ प्राण
कभी प्राणों से भी प्रिय, उसे
दिन-भर उसकी बात याद थी
किसी मायावी गीत के सुर पाकर
उसकी विषाद-मलिन बातें
फिर अगर भूल जाऊँ
तो फिर क्या होगा, क्या होगा तब!
मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी