भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डर / हरीश बी० शर्मा
Kavita Kosh से
मैंने
कई बार कोशिश की
तुम्हारा चेहरा पढ़ने की
नाकामयाब रहा
क्योंकि हर बार तुम
मुझे धत्ता बताकर चले जाते हो
झिड़क देते हो
मेरी साइकोलोजी को
अब मैं भी
बहुत कम
इन मुई भावभरी रेखाओं
आंखों की कोरों से फूटते डोरों
और
फड़फड़ाने को आकुल कसमसाते होंठों को
सख्ती से दबाकर रखता हूं-रोकता हूं
डरता हूं जो मैंने पढ़ा है मेरा चेहरा पढ़कर जान गया तू तो
झिड़क नहीं सकूंगा।
फूट जाऊंगा मैं तो।